एक कागज़ की कश्ती थी.... एक रेत का किनारा हैं..
आँखों में कुछ सपने थे, अब यादों को फ़साना हैं....
जिद थी सब कुछ पाने की तब....अब सब खो जाने का डर लगता हैं...
जीते जीते ही कभी मर जाने का मन करता हैं....
जहां खेलें.. दो बातें की.... वो यार मेरे बन जाते थे...
बातों बातों में ही सारा जहां अपना कर जाते थे...
अब संग रहते है संग खाते है...संग दुनिया-जहान घूम आते है...
पर सच कहता हूँ ....उनको "अपना" कहने में डर लगता हैं...
एक ख़ुशी थी दिल में तब...जो अंग-अंग झलकती थी...
एक हंसी है चेहरे पर अब... जो आँखों में भी नहीं दिखती है...
बड़े होने की चाहत थी मेरी... अब पीछे मुड जब देखता हूँ....
वो अंगूठा दिखाकर चिढ़ाता....शायद बचपन मेरा हैं...
Wednesday, December 29, 2010
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