Tuesday, September 27, 2011

सपने

किसी का हैं सपना, पहाड़ो पे हो एक घर अपना,
किसी ने माँगा उनका हाथ और अपने यारो का साथ,
किसी की चाहत हैं अपना अलग जहां बनाने की,
किसी ने चाहत की बस यार की बाहों में खो जाने की,
पर लगा कर उड़ रहे कुछ सपने सागर के उस पार भी,
जहाँ नितांत सन्नाटे में गूंजे आहात उनके प्यार की,
किसी के दिल में पल रहे मनमौजी के ख्वाब भी,
और चाहत की उन्होंने दोस्त घर और प्यार की,
कुछ शायद अब भी अपने सपने बुन रहे हैं,
और कुछ उन्हें पूरा करने की धुन में हैं....

धर्म

धर्म और कर्म, ये दो ऐसे शब्द हैं,जिन्हें मैं बचपन से सुनता आया हूँ और शायद इनका मर्म आज तक नहीं समझ पाया. आज मैं पहले धर्म की चर्चा करना चाहूँगा क्यूंकि कर्म तो हमेशा से ही सर्वप्रथम रहा हैं. हमारे जीवन की शुरुआत होती हैं माता-पिता से और यही से शुरु होता हैं मेरा "प्रचलित धर्म" से मतभेद....

१. माता-पिता की आज्ञा का पालन ही पुत्र  का सर्व-प्रथम एवम श्रेष्ट धर्म हैं.
इसके साथ ही कहा जाता है कि
"श्रीराम ने तो अपने पिता महाराज दशरथ की आज्ञा का पालन करते हुए एक पल में सब कुछ त्याग दिया था और १४ वर्षो के लिए वन चले गए थे."
यह सत्य हैं परन्तु पूर्ण सत्य नहीं. राम सिर्फ दशरथ के पुत्र ही नहीं थे अपितु प्रजा के प्रिय राजकुमार और भावी राजा भी थे. तो मात्र पुत्र धर्म निभाते हुए वनवास कैसे चले जाते? उन्होंने अपने पिता की आज्ञा मानी, राज-पाठ सब पल में त्याग दिया परन्तु एक राजा का धर्म भी निभाया. वो पूरे नौ मास तक अयोध्या के समीप ही चित्रकूट में रुके और देखा कि उनकी प्रजा के साथ न्याय हो रहा है या नहीं. और उस तरफ से पूरी तरह संतुष्ट हो कर ही उन्होंने आगे प्रस्थान किया.
इसी प्रकार एक व्यक्ति के भी विभिन्न दायित्व होते हैं. वो सिर्फ एक दायित्व या एक रिश्ते के धर्म को निभाते हुए सब भूल जाए, यह कदापि उछित नहीं हैं. एक मनुष्य सिर्फ एक पुत्र ही नहीं हैं, अपितु एक पिता, एक भाई, एक पति और एक प्रेमी भी हैं और उसका उत्तरदायित्व इन सभी रिश्तों के प्रति है और साथ ही साथ समाज के प्रति भी. अभिप्राय यही है कि सिर्फ एक धर्म का पालन, चाहे वो इनमे से कोई सा भी हो, कभी हितकर नहीं हो सकता वरंतः वो एक अधर्म को ही जन्म देगा और उसका संरक्षण करेगा.

यहाँ तक तो मेरी समझ थी अब हैं मेरी मुश्किल....
"क्या अपने माता-पिता कि सहमति के बिना प्रेम-विवाह करना उचित हैं?"

इसके बारें में भी मेरे अपने कुछ विचार हैं पर अब तुम से कोई शुरु करो....

मेरा प्रश्न तो अभी अधुरा ही हैं पर बात को आगे बढ़ाते हैं क्यूंकि प्रेम विवाह में सिर्फ धर्म को ही नहीं संस्कृति को भी अड़चन बनाया जाता हैं.

धर्म की बात होती हैं तो संस्कृति उसके साथ अपने आप जुड़ जाती हैं. धर्म को तो फिर भी छोड़ा जा सकता हैं क्यूंकि हममें से कई तो खुद को उसपर चलने के काबिल ही नहीं मानेंगे पर संस्कृति, वो तो हमारी रग रग में व्याप्त हैं. वो ही भारतीय संस्कृति जिसे हम सब महान कहते हैं और कहें भी क्यूँ नहीं, हमारी प्राचीन सभ्यता, लोकाचार, नर्सेगिक वेद-उपनिष्द, ऋषि-मुनि, विद्वान आदि किसी परिचय के मोहताज़ तो नहीं. पर जब कभी बात आती हैं हमारी संस्कृति की कमियों की तो या तो हम उन्हें सिरे से नकार देते हैं और देने लगते हैं दुहाई इसके वर्षों से या कहूं तो सदियों से चले आने की. जो सदियों से चला आ रहा हो वो जरूरी तो नहीं की सही ही हो. क्या किसी रीति-रिवाज़, परंपरा या कानून का सालों से चला आना ही उसे न्यायसंगत सिद्ध करता हैं या उसके वैध होने के लिए पर्याप्त हैं?

और अगर हमारी संस्कृति में अगर कोई कमी हैं ही नहीं तो फिर हमें चिंता किस बात की हैं. क्यूँ हम बार बार हमारी संस्कृति के नष्ट होने की बात करते हैं? जो सर्वगुण संपन्न हैं सर्वांगीन हैं उसे कोई नष्ट नहीं कर सकता परन्तु साथ ही साथ अगर इसमें त्रुटियाँ हैं तो माफ़ कीजियेगा आप लाख जतन कर ले पर इसको बदलने से कोई नहीं रोक सकता (डार्विन के सिद्धांत के तहत). और हमें रोकना भी नहीं चाहिए अपितु हमें तो उस बदलाव को लाने में सहयोग करना चाहिए ताकि हमारी संस्कृति हमेशा पूर्वतः सर्वोच्च शिखर पर विद्यमान रहे.

वैसे भी हमारी संस्कृति में तो नारी और पुरुष स्वयं ही अपने वर का चुनाव करते आये हैं. यह जरूर हैं की तब भी कुल और वर्ण देखा जाता था तत्पश्यात भी अंतिम निर्णय तो विवाह करने वालें नारी और पुरुष का ही होता था और उसी को समाज में पर्याप्त मान्यता प्राप्त थी. तो संस्कृति के नाम पर प्रेम विवाह को गलत ठहराना अपने आप में ही व्यंग्यात्मक  हैं.
और अगर बात आती है धर्म की तो मैं समझता हूँ कि प्रेम ही मानव जाति का शाश्वत धर्म हैं और उससे बड़ा कोई धर्म नहीं हैं. एक स्त्री और पुरुष के सात्विक प्रेम से बंधा जीवन ही निर्माता की उच्चतम  कलाकृति हैं. निश्चय ही माता-पिता की आज्ञा का पालन होना चाहिए परन्तु जहाँ बात जीवन साथी के चुनाव की हैं वहां प्रेम ही सर्वोपरि हैं.